Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ४४४
५६. ।श्री अंम्रितसर आअुणा॥
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दोहरा: दीपमाल को दिवस तबि, आइ समीप पछानि।
श्री अंम्रितसर दरस को, इज़छा भई महान ॥१॥
चौपई: बिधी चंद भाई गुरुदास।
इज़तादिक सिख अपर जि पास।
हाथ जोरि सभिहूंनि सुनायो।
श्री गुरु! सुनहु सभिनि मन भायो ॥२॥
दरशन सबै सुधासर चाहति।
चहु दिशि को नर मेल अुमाहति।
दीपमाल का दिन नियरावा।
यां ते अधिक रिदा ललचावा ॥३॥
श्री हरिगोविंद सुनि करि बानी।आछी बात कही तबि मानी।
होति प्रभाति करहि प्रसथाना।
सभिनि भयो मन अनद महाना ॥४॥
इम कहि दिन अरु निसा बिताई।
भई प्राति तारी करिवाई।
भाने कहो सुनहु प्रभु नाथ!
मैण अबि चलौण आप के साथ ॥५॥
इह अुपदेश पिता ने दीना।
गुरु संगति नित करहु प्रबीना।
सो मैण करोण न तागोण कबै।
दिहु आइसु होवौण संग अबै ॥६॥
श्री गुरु तिस को धीरज दयो।
ब्रिध साहिब प्रलोक अबि भयो।
इहां रहनि ही अबि बनि आवै।
बहुरो संग रहनि ही भावै ॥७॥
इम कहि हय आरूढ सामी।
भए सुधासर मारग गामी।
दिवस ढरे लगि पहुंचे जाइ।
चमूं संग आई समुदाइ ॥८॥