Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४४९

कहां लौ कहैण कोइ, का मै सु बुज़धं१।
भिड़ो भेड़ भारो भयो भूर जुज़धं ॥४२॥
सैया: संमत पंच सहंस्र बिते जबि
हार नहीण किस हूण दिशि मानी।
श्री प्रभु ने तबि कीन बिचारनि२
तूरन प्रेर दई इम बानी३।
दैतनि बीच प्रवेश भई
भरमाइ दई मति यौण तबि ठानी।
-दै हम बीर बली बड हैण
इह एकल धीर महां अभिमानी- ॥४३॥
-मन मोहनि४! तोहि सरूप महां
अति जुज़ध करो अधिकै घमसाना।
हम रीझ रहे तव प्राक्रम को
पिखि भांति अनेक सु बुधि ते ठाना।
तुझ संग न जंग अुमंग करैण५
अब होहु निसंग अुतंग महाना।
चित चाहति हैण कुछ देवनि को
अभिबाणछति६ जाणच लिजै बरदाना- ॥४४॥
स्री भगवान सु जानि महान
भनो -सिर दान अभै करि दीजै७।
साच करो बच आपनि को
अबिनाशि बडे जसु को बरलीजै८।
या बिन चाहि न मोहि कछू
जिस ते तुम* को किम जाचन कीजै९।


१किस विच इंनी बुज़धि है।
२विचार कीती।
३सरज़सती (माया)।
४हे मन मोहण वाले।
५हुण असीण तेरे नाल जंग दी अुमंग नहीण करदे।
६मन इज़छत।
७सिर दा दान करो निरभै होके।
८अबिनाशी वज़डे जस दा वर लओ।
*पा:-तुझ।
९इस बिन मैळ होर कुछ चाह नहीण है जिस करके होर कुछ तुसां तोण किवेण मंगां।

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