Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४४७
५९. ।श्री गुरदिज़ता वाह॥
५८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>६०
दोहरा: दिन दोइकि दिन को रखो, लाग दरब को दीन।
केतिक दिन बीते प्रभू, तारि समाज सु कीनि ॥१॥
चौपई: दे दे दरब मसंद पठाए।
सरपी सिता बटोरति लाए।सूखम चावरु चारु लमेरे।
तिमि गोधूम जहां शुभ हेरे ॥२॥
जेतो खरच लखो मन मांही।
दुगन वसतु लावति भे तांही।
ब्रिंद कराहे दए चढाइ।
शुभ पकवान पाक समुदाइ ॥३॥
प्रथम थार गन१ भरि करि लाए।
ब्रिंद सेवकनि ते अुचवाए।
स्री दरबार बंदना कीनि।
फिरे प्रदखना चारहु दीनि ॥४॥
ब्रिध साहिब, भाई गुरदास।
इनि ते करिवाइसि अरदास।
सरब प्रसाद ब्रतावनि करे।
बहुर निकेत आइ हित धरे ॥५॥
आगा करी सबंध जहां जहि।
गन पकवान पठाइ तहां तहि।
सगरो मेलि२ हकारनि करो।
इसि कारज की बिलमि न धरो ॥६॥
प्रथम खडूर सु गोइंदवाल।
गंग मात ने पठी बिसाल।
मंडिआली रु डरोली डज़ले।
दे पकवान दूत गन घज़ले ॥७॥
रामदास पुरि महि घर सारे।
पठि करि तिनहु अनद को धारे।
१थाल बहुते।
२विआह विच शामल होण लई जो साक आदिक सज़दे जाण।