Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४५६
सहो न जाइ अंग रहि जल बल।
निज छाया की तीय बनाई१।
निज सरूप सम सदन बिठाई ॥१७॥
त्रास तेज को पाइ बिसाला।
चोरी गमन कीनि पित शाला२।
बिशुकरमा ने जबहि निहारी।
जानि अजोग कठोर अुचारी३ ॥१८॥
-पति ते छपि कै बिना हकारे।
कोण आई चलि सदन हमारे।मो घर महिण रहिबे नहिण थान।
जहिण इज़छा तहिण करहु पयान- ॥१९॥
बाक पिता के सुनि कुमलाई।
अपनी देहि तबहि पलटाई।
बड़वा को४ धारनि करि तन को।
प्रापति भई जाइ* बड बन को ॥२०॥
इस की गति सूरज नहिण जानी।
छाया तिया जानि५ रति ठानी।
तिस ते भी दुइ सुत जनमाए।
नाम सनीचर आदिक गाए ॥२१॥
एक सुता छाया निपजाई६।
तपती७ नाम तिसी को गाई८।
दज़खं बिखै बही हुइ सलिता।
बिमल अगाध जाणहि जल चलता ॥२२॥
जुग तनुजा अरु नदन चार।
मारतंड के भए अगार।
१आपणी छाइआ दी (होर) इसत्री बणाई।
२पिता दे घर, भाव पेके।
३(धी दा चोरी टुर आअुणा ते पेके रहिंा) अयोग जाणके करड़ी (बाणी) कही।
४घोड़ी दा।
*पा:-बहुर।
५छाइआ वाली इसत्री (ळ आपणी इसत्री) जाणके।
६छाइआ ने जंमी।
७तापती (नामे नदी)।
८कहिणदे हन।