Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ४५८

५८. ।श्री अटज़ल राइ जी ने मोहन जिवाइआ॥
५७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>५९दोहरा: अटज़लराइ जबि प्राति भी,
जागे होइ सुचेत।
करि नित की किरिआ भले,
तागो तबहि निकेत ॥१॥
चौपई: खेलनि के सथान चलि आए।
सेवक साथ बाल समुदाए।
पिखि सभि को मन आनद कै कै।
इत अुत बिचरति संगी लै कै ॥२॥
संधा समैण खेल जो तागी।
सो सिमरी दीरघ अनुरागी१।
अबि लौ मोहन नहि चलि आयो।
दाअु सीड को सीस चढायो२ ॥३॥
दैबे हेतु टरो३, घर रहो।
इम लखि निज सेवक सोण कहो।
जाणहि तांहि को आनि बुलाइ।
सिर है सीड, न अबि लौ आइ ॥४॥
सुनति दास तिह सदन सिधायहु।
मरो परो मोहन दरसायहु।
सकल कुटंब सशोक पुकारति।
हाथ अुसारति सिर पर मारति ॥५॥
बडो ब्रिलाप हेरि तिस बेरे।
मिलति नाति४ नर नारि घनेरे।
अटलराइ के निकटि सु आयो।
मोहन मरिगा सरप डसायो ॥६॥
सुनो अचानक मोहन मरना।
अटलराइ नहि कीनसि जरना।
सभि लरकनि के होइ समेत।१याद कीती बड़े पिआर नाल।
२भाव, मीटी अुस दे सिर ते असीण चाड़्ही होई है।
३टाला कीता सू।
४शरीक, साक।

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