Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ५८
६. ।सिज़खां ळ अुपदेश॥
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दोहरा: श्री सतिगुर हरिराइ जी, सिज़खनि देण अुपदेश।
गुर नमिज़त लगर करहु, हुइ कज़लान विशेश ॥१॥
चौपई: इम सतिगुर ते सुनि सिख जावैण।
निज निज ग्रिह लगर वरतावैण।
भूखा रहनि न कोई पाइ।
सति संगति को देण त्रिपताइ ॥२॥
पुरि ग्रामनि महि गुर सिख जहां।
छुधित सु भोजन प्रापति तहां।
निरधन, रंक, अनाथ महाने।
अंग भंग हुइ, मिलै न खाने ॥३॥
सो सगरे पुरि ग्राम मझारा।
गुर सिज़खनि के करहि अहारा।
जिन के बहु धन ग्रिह मैण नांही।
सो मिलि करि कैआपसि मांही ॥४॥
इक थल देग गुरू हित करैण।
छुधित होति सो अुदर सु भरैण।
गुरसिख गुर सिज़खनि पै जाइ।
तिह सनमानहि करि बहु भाइ ॥५॥
दे भोजन को तिह त्रिपतावैण।
भुखा सिख को रहनि न पावै।
प्रीति धारि गुर सिज़खनि सेवैण।
सादर सतिसंगति मिलि जेवैण ॥६॥
इह सभि दिशि ते सतिगुर पास।
आनि आनि ठानहि अरदास।
अमुके पुरि मैण अमुके ग्रामू।
चलहि देग अमुके सिख धामू ॥७॥
सुनि सुनि सतिगुर होइ प्रसंन।
निज सिज़खनि को भाखहि धंन।
दे गुरू की बहुत सथान।
पुरि पुरि महि महिमा महीआन ॥८॥