Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४६५
जबि रोकहिण, गुर नाम अुचारी१।
तिस को तागहिण, जाहि सुखारो।
हरखति अुचरति जै जै कारो ॥२५॥
पछुतावति जे हुतो जगाती।
आज नही को दाम अगाती२।
मुख मुंदं३ तिन के पै रही*।
रिदे बिसूरति रोकहिण नहीण४ ॥२६॥
-सगरो जगत परो गुर पाछै।
लेण किस ते हम-, छूछे गाछै५।
तिस दिन की नहिण मिली जगाति।
बस नहिण चलति रहे पछुताति ॥२७॥
श्री सतिगुर सभि नरन जनाई६।
बडे भाग जिस लेहि सु पाई७।
जमु जागाती सभि जग डंडै८।
गुर को नाम सुनहि तिस छंडै९+ ॥२८॥
यां ते सतिगुर शरनी परै।
जम को त्रास महां परहरै।
जैसे तुरक जगाती अबै।
सुनि गुर नाम तजे नर सबै ॥२९॥
अबि प्रतज़छ करि कै दिखराई।
ले गुर नाम सु जम छुटकाई।
तिस दिन ते गुर के संग भीर।१रोकं (तां ओह) गुरू जी दा नाम कहि देण।
२मिलिआ।
३दंदं, भाव चुज़प।
*पा:-केतिनि के रही।
४झूरदे हन रोकदे भी नहीण।
५असीण किस तोण लईए खाली तुर गए।
६पुरशां ळ जंाया।
७जिसदे बड़े भाग होण अुह सतिगुराण दी (शरन) पा लैणदा है।
८डंड देणदा है (जम)।
९छड देणदा है।
+यथा गुर प्रमां-तिन जमु जागाती नेड़ि न आइआ।
।तुखारी छंद म ४॥