Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 450 of 492 from Volume 12

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४६३

६३. ।साहिबग़ादे जी दा अुज़तर। गुरिआई॥
६२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>६४
दोहरा: दै घटिका बासुर चढे, करि तन शौच शनान।
बैठे हुते दिवान महि, श्री गुरु दया निधान ॥१॥
चौपई: लए पज़त्रिका सिख चलि आयो।
पग पंकज पर सीस निवायो।
हाथ जोरि करि अरपन कीनि।
-पिता पठो- लखि लीनि प्रबीन ॥२॥
चिज़ठा खोलि जानि सभि आशै।
अुठि गमने जुग मातनि पासै।
सास नुखा गुर रूप चितारति।
-कहां होइ- इम संसै धारित ॥३॥कबि कबि ग़िकर फिकर के करैण।
दुशट तुरकपति ते चिति डरैण।
गुर महिमा जानैण भलि भांती।
तअू सनेह मानि दुख छाती ॥४॥
कितिक मसंद सिज़ख गन दास।
पहुचे धरे मौन थित पास।
बैठे निकटि मात के जाई।
मुख दादी दिशि करो सुनाई ॥५॥
सतिगुरू लिखो आपने हाथ।
भने संदेसे हम तुम साथ।
संगति प्रति अुपदेश बतायो।
इह सिख अबि ही ले करि आयो ॥६॥
इम कहि पिखो मेवड़े ओर।
लिहु कर महि बाचहु सभि छोरि१।
मानि हुकम तिन पठो सुनायो।
संगति प्रति जिम प्रथम बतायो ॥७॥
बहु शलोक बैराग जनावैण।
-जग महि थिर को रहिनि न पावै।
बडे बडे हुइ सभि चलि गए।


१खोलके (अ) आदि तोण।

Displaying Page 450 of 492 from Volume 12