Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४६६
भई अधिक मग चलहि बहीर ॥३०॥
जबि संधा कहु करि हैण डेरो।
दरशन को अुमगाइ बडेरो।
गंगा संग सगल चलि आवै१।
कर बंदहिण गुर दरशन पावैण ॥३१॥
जै जै कार पुकार अुचारैण।
मिलि सतिगुर को आनद धारैण।
इसी रीति श्री गंगा गए।
कनखल बिखै सिवर को किए ॥३२॥
सुरसरि तट पर पीपर थान।
बैठे श्री सतिगुर भगवान।
सुनि सुनि लोक हग़ारोण आवहिण।
चहुण दिश भीर थाअुण नहिण पावहिण ॥३३॥
खान पान पुन करि बिसरामे।
जागे बहुर रही निस जामे।श्री गंगा को अूजल नीर।
कीन शनान सरीर सधीर२ ॥३४॥
भई प्रभाति सभिनि सुनि लीनि।
श्री गुर अमर आगमनि कीनि।
रिखि, मुनि, पंडित, तीरथ बासी।
संत, महंत, अनिक जज़गासी ॥३५॥
ब्रहमचारी, औधू, संनासी।
ग्रिहसती, वैरागी मिलि रासी।
अपर अनेक बेख के साधू।
दरशन कारन गान अगाधू३ ॥३६॥
स्री सतिगुर चहुणदिशि परवारे।
कर जोरहिण सिर बंदन धारे।
नर परधान निकट हुइ बैसे।
मुनि गन बास पास सुभ जैसे ॥३७॥
१गंगा दा सारा संग नाल चलिआ आवे।
२समेत धीरज दे गुरू जी ने।
३गिआन दे समुंद्र (भाव स्री गुरू जी दे)।