Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि५) ४६४

६१. ।भाई मिहरा॥
६०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>६२
दोहरा: दिन चौथे महि चलनि को,
श्री सतिगुर फुरमाइ।
नर नारी सुनि दुखिति चित,
पुन इमि किमि दरसाइ१ ॥१॥
चौपई: देश बिदेशनि के जिनि ताईण२।
दरशन हेत अए समुदाई३।
हे अलि! सो हमरे पुरि आए।
धंन भाग इन के४* लखि पाए ॥२॥
रामे की तनुजा बडभागनि।
गुरु सुत ते जो भई सुहागनि।
तिह संबंध ते हम भी धंन।
तीन दिवस गुर पिखे प्रसंन५ ॥३॥
इज़तादिक कहि कहि अुतसाही।
आइ मिली रामे घर मांही।
करनि बिदा को गुरू बुलाए।
शुभ आसन परि अूच बिठाए ॥४॥
दाज समाज सरब ले आवा।
दिखरावित तिसि थान टिकावा।
निज तनुजा नेती+ ले आवा।
करि संकलप सरब अरपावा ॥५॥
बसत्र बिभूखन बासन ब्रिंद।
बोले रामा दै कर बंदि।तुमरे सुत की सेवा हेत।
इकि दासी मैण दई निकेत ॥६॥


१फिर इस तर्हां दे (भाव आपणे नगर विच) दरशन किवेण होणगे?
२देश विदेशां दे (सिज़ख) जिन्हां (गुरू साहिबाण) दे।
३दरशन वासते कज़ठे होके आअुणदे हन।
४रामे दे परवार दे।
*पा:-हमरे?
५दरशन करके प्रसंन होए हां।
+पा:-तांही।

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