Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)४६८
इज़तादिक निज सिफति सुनी जबि।
श्री गंगा प्रगटी जल ते तबि।
श्री गुर अमर बंदना ठानी१।
धंन धंन अवलोकि बखानी२ ॥४४॥
जगतेशर की जोति बिसाला।
तुम को प्रापति भई अुजाला।
तुम पावनि पावनि कर पावन३।
कल नर पापनि भार नसावनि४ ॥४५॥
सुनि प्रसंन श्री गुर तबि होए।
अंतर धान भई जल मोए५।
केतिक दिन बसि कीनि शनाना।
मन भावति दे करि तहिण दाना ॥४६॥
सनै सनै पुनि डेरा पावति।
गोइंदवाल दिशा को आवति।
जै जै कार करति नर संग।
अधिक अनदति पिखि गुर अंग६ ॥४७॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे तीरथ प्रसंग बरनन नाम
अून पंचासति अंसू ॥४९॥
अंक ४६ विच दसदे हन कि इह सुणके गुरू जी प्रसंन होए जिस तोण सपज़शट है कि गंगा
ने दास वाणू सतिगुर दी कीरती कही है ते अुन्हां ने मालक दी हैसीअत विच सुणी है। ते चौथे
सतिगुराण ने संसे रहत करने लई जो वाकगुरबाणी विच किहा है सो इह है कि तीरथां ळ पविज़त्र
करन लई गुरू जी तीरथां ते गए सन।
१गंगा ने गुरू अमरदास जी ळ बंदना कीती।
२(गुरू जी ळ) वेखके गंगा कहिं लगी कि धंन हो धंन हो।
३पविज़त्र चरन पावंा करो (मेरे विच)।
४दूर करन लई, भाव-हे गुरू जी मेरे विच पए कलजुगी जीवाण दे भार दूर करन लई अपणे
पविज़त्र चरण मेरे विच पाके मैळ पविज़त्र करो।
५जल विखे।
६अंग (अ) सरूप।