Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ४६६
५९. ।शोक नविरती, रास समापति॥
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दोहरा: करि शनान सतिगुर अए,
बैठे लाइ दिवान।
सुनि सुनि सुधि अचरज करति,
का हुइ गई महान ॥१॥
चौपई: पुरि जन अूच नीच तबि आए।
सभि बोलति बहु शोक वधाए।
महांराज! इह गति का करी?
बाल अवसथा अजुह न टरी ॥२॥
महां शकति जुति साहिबग़ादे।
सभि पुरि जननि देति अहिलादे।
सकल बाल के संग फिरंते।
निस महि नीठि नीठि बिछुरंते ॥३॥
इतादिक बच कहति सुनावैण।
गुरू सभिनि को शुभ समुझावैण।
दैवगती कुछ लखी न जाई।
जिस के बसि त्रै लोक सदाई ॥४॥
बालक तरुन ब्रिज़ध नहि जानैण।
बली निबली एक सम मानैण।
सो किम मिटहि दैवगति नारी।
राग दैख नहि किह सोणधारी ॥५॥
तिस को जानि शोक का धरीअहि।
बुधि अरु बल करि जे न प्रहरीअहि।
दुखी नानकी अधिक सभिनि ते।
पारो परम पुज़त्र गुन भनते ॥६॥
प्रतिपारति नित हेरति रहै।
करति दुलार मोद को लहै।
बहु दुख पाइ रुदति बिरालपहि।
सभि त्रिय महि गुनि सिमरि कलापहि ॥७॥
सभि दमोदरी आदिक जेई।
कहि कहि धीर देति बहु तेई।