Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४७२
मन भावति सुख करौण बिलासा।
जाचनि की मिटिहै सभि आसा।
जम के बसि जबि परिहौण जाई।
देहि सासना१ नरक गिराई ॥२०॥
कित को सुख अबि जाचनि करौण।
संसै होति, न निरनो धरौण-।
तूशनि एक घटी लगि होवा।
तबि श्री सतिगुर तिस दिशि जोवा ॥२१॥
भो दिजबर! कोण तूशनि ठानी।
जाचन कीजै चाहि महांनी।
सो हम ते लिहु जो मन भावा।
साच करहिण बच हम जु अलावा२ ॥२२॥
सुनि कै तबि होयहु दिज दीन।
दै लोकनि सुख लालस कीनि।
बिनै सहत बच कहै बनाइ।
गुरु प्रताप लखि सीस निवाइ ॥२३॥
दिजअु वाच: नाम देहिण, धन देहिण न जन को,
धन बिहीन जन* जग न सुहाइ।
जे धन देहिण नाम नहिण देवैण,
नाम बिना जन जमपुरि जाइ।
तुम पहि कही नहीणबनि आवहि३
जोण भावैण तोण बनति बनाइ४।
गुर अमरदास तेजो के नदन
दोनहु निरमल पज़ख+ चलाइ५ ॥२४॥
१ताड़ना।
२जो किहा है।
*पा:-नर।
३फबदी नहीण।
४कोई बणत बणा दिओ।
+पा:-पंथ।
५दोहां पखां (पासिआण) विच निरमलताई विच तोरो। भाव लोक विच बी दरिज़द्रताई दी मैल ना देहो
ते प्रलोक विच पाप सासना दी मैल नां दिओ। अगे अंक २७, २८, २९, विच अरथ सपज़शट हो
जाणदा है। (अ) दोवेण रसते तुसां निरमल टोरे हन। ग्रिहसती ते अतीत तारे हन। (ॲ) कई दोहां
पखां दा अरथ नादी बिंदी बी करदे हन।