Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४७३

चौपई: सज़तनाम जे देवैण जन को।
रहै दारिदी पाइ न धन को।
इहां लोक प्रताप न जानहि।
-अहै रंक, हीनो- पहिचानहिण ॥२५॥
तुमरी दात न जानै कोई।
सुख प्रलोक नहिण पावहि सोई।
जे करि धन देवहु निज जन को।
भोगहि अनिक रीत बिशियन को ॥२६॥
बिना नाम जम के बसि परै।
नाना नरक बिखै दुख भरै।
नहीण आप की दात पछानहि।
सभि संकट प्रापतिजिस जानहिण ॥२७॥
दोनहु लोक१ आप को दान।
बिदतै जन पावहि कज़लान२।
कहनि बनहि नहिण रावरि पास।
जिम जानहु तिम पूरहु आस ॥२८॥
लोक प्रलोक मलीन बिहीन।
तुमरो जन होवै सुख लीन३।
इम कहि बंदन दिज ने करी।
दै लोकन सुख काणखा धरी ॥२९॥
पिखि सतिगुर दिज की चतुराई।
भए प्रसंन तनक४ मुसकाई।
कहो बाक दोनहु तुम लेहु।
प्रापति है सुख अबहि अछेहु ॥३०॥
जबि लौ जीवहु धन बहु पावहु।
सिमरहु सज़तिनाम लिव लावहु।
अंत समै जम नहिण दरसैहो।


१दोवेण लोकाण दा।
२मुकती।
३लोक प्रलोक विच आप दा जन मलीनता बिनां होके सुख विच लीन होवे,
(अ) तुहाडा दास लोक विच मलीन (दरिज़द्री) है ते प्रलोक विच (पुंनां तोण) बिहीन है, (ऐसी
किरपा करो कि इह दोहीण थाईण) सुख विच लीन होवे।
४ग़रा कु।

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