Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४७१६२. ।माता गंगा प्रलोक॥
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दोहरा: सुनि करि बच इमि मात के श्री गुरु हरि गोविंद।
मानति भे सभि जानि कै होहि भविज़खति ब्रिंद१ ॥ १ ॥
चौपई: होति प्रभाति करहि सभि तारे।
चलहि बकाले संगि तुमारे।
इमि कहि सुपते राति बिताई।
जागे दया सिंधु गोसाईण ॥२॥
सौच शनान धान को ठाने।
दिनकर चढे चढनि ललचाने२।
सभि परवार सदन ही राखि।
हय मंगवाइसि चलिबे काणखि३ ॥३॥
कुछ सिख सुभट संगि लै नाथ।
गंग मात के चाले साथि।
श्री हरिमंदर बंदन करि कै।
गमनि बकाले दिशा निहरि कै ॥४॥
सने सने मग अुलघो सारो।
जाइ बकाले ग्राम निहारो।
साईणदास संगि बच कहो।
इह सथान आगे जो लहो ॥५॥
पहुचनि अुचिति इही लखि लीजै।
केतिक दिन बासा इति कीजै।
मिहरे सुनो गुरू चलि आए।
माता गंगा संगहि लाए ॥६॥
हरखतिगमनो लेनि अगारी।
आइ मिलो बंदन पद धारी।
सतिगुरु कुशल बूझि तिह संगा।
दा आपि की सुख सरबंगा४ ॥७॥
पुन माता के चरनी परो।
१सारी भविज़खत विच जो होणी है।
२सूरज चड़्हे चड़्हना चाहिआ।
३चज़लं दी इज़छा करके।
४सभ तर्हां।