Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४७९
होवति है भी बिदत महाना ॥२१॥
सभि महिण रामदास मिलि करि कै।
सतिगुर चरन प्रेम को धरि कै।
करहिण बापिका१ सेव बिसाला।
सरब गरब ते होहि निराला ॥२२॥
अति हित करि कै कार कमावहिण।
धरहिण टोकरी सिर, निकसावहिण२।
निज कुल की लजा को परहरि।
सनबंधिनि की आन नहीण धरि३ ॥२३॥
सभि जग की राखी नहिण कान४।
सेवा के ततपर सवधान।
खेद सरीर सु नहीण विचारति।
प्रेमा भगति राति दिन धारति ॥२४॥
अपर संग नहिण इरखा ठानहिण।
करहिण टहिल सुख महिल प्रमानहिण५।
खनहिण म्रिज़तका सीस अुठावैण।
निकसि वहिर को दूरि गिरावैण ॥२५॥
धूल सरीर बसत्र को लागहि।
है मन भंग न, प्रेम सु जागहि।
मन, बच, क्रम सेवा के ततपर।
अपर मनोरथ को नहिण अुर धरि ॥२६॥श्री गुरु पूरन अंतरजामी।
तिस की लखहिण सेव सभि सामी।
अुर परपज़क प्रेम करि रूरा।
शरधा सुमति संगि परिपूरा ॥२७॥
परम लाभ सेवा कहु जानहि।
श्री सतिगुरू सभि भेव पछानहिण।
कितिक काल बीता लगि सेवा।
१बावली दी।
२कज़ढदे हन (मिज़टी)।
३शरीकाण दी शरम (जी विच) ना धारण करके।
४परवाह, कंौड।
५टहिल तोण सुख दा मरातबा मिलदा है इह जाणदे हन।