Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४८०

लेश मात्र जिस नहिण अहंमेवा१ ॥२८॥
लवपुरि संग जाति गन गंगा२।
आइ कियो डेरा थल चंगा।
बहु सनबंधी हैण तिन मांहि।
रामदास के मेली आहिण ॥२९॥
को गाती३, भ्राता है कोई।
सोढ बंस के नर बर सेई।
केतिक तिन महिण सखा सबैस४।
केतिक प्रिथम परोसी हैस५ ॥३०॥
केतिक ब्रिज़ध अहैण हितकारी६।
पिखन मात्र ही कितिक चिनारी७।
ताअू, चचे कितिक कुल महिण के।
सभि मिलिबे हित आइ सु चहि के ॥३१॥
दिज केतिक प्रोहत तेआदि।
छज़त्री कितिक पिखिनि अहिलादि।
वैश शूद्र जे निकट बसंते।
जिन सोण बोलति बस बरतंते८ ॥३२॥
कहति परसपर मिलि कै ब्रिंद।
इहां बसहि हरिदास सु नद९।
श्री गुरु अमर लीनि गुरिआई।
नगरी गोइंदवाल बसाई ॥३३॥
गुर के है अलब सुख लहो।
घर ससुरार आन सो रहो।
बडो भ्रात इन को संहारी१०।


१हंकार।
२लाहौर दा संग (जो) सारा जाणदा सी गंगा ळ।
३शरीक।
४इको जिही अुमर दे म्रिज़त।
५गवाणढी सनगे।
६बुढे पिआर वाले हन।
७कईआण दी देखं मात्र दी ही पछां सी।
८जिन्हां नाल (कोल दा) वज़सं ते वरतोण (करके) बोल चाल सी।
९भाई हरदास जी दे सपुज़त्र (श्री रामदास जी)।
१०स्री गुरू रामदास जी दे बड़े भाई दा नाम।

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