Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४८४
भ्रातनि बिखै अधिकता चहै१ ॥५४॥
तुम होए गुर रूप अुदारा।
कछू न तुमरे एहु बिचारा।
ज़त्री बंस बिसाल२ हमारो।
सहत बडाई करनि अचारो३ ॥५५॥
तअु रहि आवहि जाति मझारा।
हीन कहावहिण नहिण किस बारा।
भ्रातनि बिखै न तरक सहारैण।
यां ते ठानति करम अुदारै ॥५६॥
नाम४ मंगला एव अलाए५।
तबि हूं रामदास चलि आए।
गुर सूरज को जबहु निहारा।
बदन कमल परफुज़ल६ अुदारा ॥५७॥
पद अरबिंद सुगंधि अनद७।
लोचन भ्रमर करे कर बंदि८।
इस को देखति लवपुरि के नर।
कहोबहुर तरकनि९ को अुर धर ॥५८॥
इह भी जनमो बंस हमारे।
लाज गवाई सरब प्रकारे।
पित के मरे सदन को तागा।
घर ससुरारि बसो निरभागा ॥५९॥
मिलो मिहनती ब्रिंद मझारे।
खनि म्रितका कहीअनि करधारे१०।
भरे टोकरी सीस अुठावै।
१वडिआई (सभ कोई) चाहुंदा है।
२वज़डा (है)।
३वडिआई वाले कंम करन तां।
४इक दा नाम सी।
५किहा।
६खिड़ गिआ (श्री रामदास जी दा)।
७चरनां कवलां दी अनद दाइक सुगंधी दे।
८नेत्र भौरे कर दिज़ते हथ जोड़के।
९भाव तरकाण कीतीआण।
१०पज़टदा है मिज़टी कहीआण हज़थ फड़के।