Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ४८२

६१. ।करतार पुर दरबार॥
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दोहरा: निज घर पैणदे खान सुनि,
आयो करति अुताल।
बिधीचंद को मिलति भा,
करि सलाम ततकाल ॥१॥
निशानी छंद: सति गुर की सुध बूझि तबि, मंदर निज मांही।
बैठि निकट करिबारता, किम भी रन मांही?
बिधीए सकल बखान तबि, जिम भा घमसाना।
तुरकानी बहु बाहिनी, धरि आयुध नाना ॥२॥
आइ परी अध जामनी, गन छुटी तुफंगा।
पहुचे सतिगुर सूरमे, करि तेग़ तुरंगा।
लरति भए मिलि आप महि, तोमर तरवारैण।
नहि तुरकनि ते कछु सरी, इह समुख प्रहारैण ॥३॥
निस महि मरे सहज़स्र बहु, पुन भयो प्रकाशा।
चढे आप हय पर गुरू, हित रिपुनि बिनाशा।
बली काबली बेग भट, अुमराव महाना।
दुंद जुज़ध कीनो महां, गहि हाथ क्रिपाना ॥४॥
सतिगुर खड़ग प्रहारि कै, राखो बिच खेता।
ललाबेग सभि चमूं मुखि१, आयो रण हेता।
अरो प्रथम जेठा तहां, बहु करि हज़थारा।
घिरो तुरक गन महि बली, बहुतिनि मिलि मारा ॥५॥
पुन गुर गमने समुख तिह, संघर बड ठाना।
ललाबेग अरु गुरू के, होए हय हाना।
सो भी लीनो मारि करि, सभि चमूं प्रहारी।भई पराजै तुरक इम, गुर जै करि भारी ॥६॥
जाती मलक जि आदि भट, गन शसत्र प्रहारे।
सुनि पैणदे खां कहति भा, का करोण अुचारे।
मैण होतो जे रण बिखै, बल करति घनेरे।
गुर को जानि न देति कबि, हय हतो अगेरे२ ॥७॥


१सारी सैना दा मुखीआ।
२अगे (गिआण) घोड़ा मारिआ गिआ।

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