Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ५९
७. ।मालवीह अुते नागां ते जज़छां दा मेल कराइआ॥
६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>८
दोहरा: गन जज़छन को जूथपति१,
जबहि कहो इस भांति।
श्री कलीधर सुनि सकल,
बोले बच बज़खात ॥१॥
चौपई: महां बीर रस बिखै भिगोवा।
छिमा करन आशै जिस जोवा।
अधिक प्रताप संग भरपूरा।
बिजै सहित बोले बच रूरा ॥२॥
जग महि तुरकन सैना अनगन।
सपतहु अंग सहित अति दुरजन२।
जिन ते कहूं मवासि न रहो।
सभि दे दंड ओज ते लहो ॥३॥
दीन दास तिन के बनि राअू३।
हुकम करहि इन पर मन भाअू।
जग महि भयो अशज़त्र४ प्रतापू।
हुते शज़त्र कीने सभि खापू ॥४॥
तिन तुरकनि अन गन कौ मारौण।
इक सर संग भसम करि डारोण।सायुध एक रहन नहि पावै।
छुटो बान इक साथ खपावैण ॥५॥
तअू समा हम कलू बिचारा।
बहुर देहि मानुख को धारा।
रहन भलो इन के अनुसारी।
नहि चहीयत मिरजाद बिगारी ॥६॥
सने सने सभिहूंनि खपावैण।
तुरक नगारबंद नहि पावैण५।
१जथेदार।
२(तुरक) दुरजन (राज समज़ग्री दे) सतां अंगां (खग़ाना, फौज, किल्हे आदि) वाले हन।
३राजे दीन होके तिन्हां दे दास बण रहे हन।
४जिस दा कोई वैरी ना होवे।
५नगार बंद ना रहिं तोण भाव है तुरक पातशाह कोई नहीण रहेगा, जिस अज़गे नगारा वज़ज सके।