Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ४८२
५१. ।हग़ूरी कवीआण दे कबिज़त॥
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दोहरा: अबि आगे बरनन करौण
कवि जि रहैण गुर पास।
सुजस कबिज़तन महि करो
लेति भए धन रास ॥१॥
चौपई: धन अरथी धन गन को पायो।
निज बुधि करि गुरदेव रिझायो।
अपर पदारथ जिन किनिचाहा।
दसम गुरू ते लीनसि पाहा१ ॥२॥
महां अुदार मुकति लौ देति।
चहुदिशि ते कवि तागि निकेत।
आनि अनद पुरि कीनसि बासा।
सुत बित आदि पाइ सुख रासा ॥३॥
जे निशकाम मुकति ही दई।
कितिक संपदा अरु गति लई२।
चारहु चज़कनि गुर जस फैला।
मनहु चंद अुज़जल बिन मैला ॥४॥
केतिक कवीयनि केर कबिज़त।
लिखौण सुनावनि के हित मिज़त!
गुर सिज़खनि के हेत रिझावनि।
अर प्रभु लोगनि जिन मन पावन ॥५॥
श्री कलीधर की बर कथा।
कथोण जथामति सुनीयहि तथा।
अदभुति करे चरित गुन खानी।
कहे जिनहु भई पावन बानी३ ॥६॥
कवी जी इस अंसू विच कवीआण दे कबिज़त देणगे अुस संचे विचोण जो आप ळ प्रापत होइआ है।
लाइक कवी होण करके इन्हां कबिज़तां ळ लिखदिआण आप ळ कई थाईण आपणी कविता करन दा
हुलास आ जाणदा है सो आप ने आपणे छंद रचके एथे दिते हन, अुन्हां विच आपणा नाम दे दिता
है जिस तोण कोई भुलेवा नहीण पैणदा।
१पा लिआ।
२कईआण ने धन ते मुकती (दुइ) लए।
३जिन्हां नेचरिज़त्र कहे हन अुन्हां दी बाणी पविज़त्र होई है।