Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ६१
८. ।पैणदे खां बखशिशां॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>९
दोहरा: सुनि सौदागर बाक को, शरधा लखि अधिकाइ।
सतिगुर भए प्रसंन तबि, कहति भए इस भाइ ॥१॥
चौपई: अपनो जनम क्रितारथ कीना।
सभि कुल को संकट करि छीना।
इती दूर ते वसतु लिआवा।
बहु धन खरचो प्रेम बधावा ॥२॥
गुर हित नित दसौणध को राखा।
दरशन गुर शरधा अुर काणखा।
हम प्रसंन बर जाचन कीजै।
अपनी आशा पुरि लईजै ॥३॥
हाथ जोरि तबि कहो सुदागर।
प्रेम परखिबे नागर आगर१।
दरशन करे त्रिपति चित होवा।
क्रिपा द्रिशटि ते मो कअु जोवा ॥४॥
सभि बिधि ते मुझ करो निहालू।
बर दीजै निज प्रेम बिसालू।
सिपरखड़ग अरु कट सोण भाथा।
लए सनध गहे धनु हाथा ॥५॥
इह सरूप अुर बसहु तुहारा।
जथा चलहि नहि मेरु अुदारा।
निस दिन जिहवा नाम मुकंद।
रटति रहौण श्री हरि गोविंद ॥६॥
इहु बर मो कअु दीजहि सामी।
क्रिपा करहु गुर अंतरजामी।
जबि लौ हुइ न आप सोण मेल२।
करमनि बसि जूनन महि खेल३ ॥७॥
जहि जहि जनम धरौण मैण जाई।
१स्रेशट चतुर है।
२भाव आप दे सरूप विच लीन ना होवाण।
३करमां दे वस होके जून विच खेडदा रहां।