Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ६४

श्री नानक ते रहो पिछारी।
श्री अंगद के चरन मझारी।
पुन श्री अमरदास की सेवा।
संगी१ रामदास गुरदेवा ॥८॥
पुन श्री अरजन के ढिग रहो।
भाई पद को तबि ते लहो।
जिन को बचन अटल जग भयो।
श्री गुर हरि गोबिंद जनमयो ॥९॥
पातिशाहि खशटनि लौ देहि।
जीवति रहो गान कहु गेहु२।
अनिक नरनि कअु कीन अुधारा।
सज़तिनाम अुपदेश अुदारा ॥१०॥
श्री गुर नानक सभि ते आदी३।
पाचे जो टिज़के* गुर गादी।
सभिहिनि कहु बुज़ढा निज हाथ।
देतो रहो तिलक शुभ माथ ॥११॥
पीछे संतति४ तिस ही रीति।
सतिगुर साथ रहति भे नीति।
तीन काल के गातावान।
प्रगट होति भे सगल जहान ॥१२॥
सतिगुर को श्री मति५ बर सागर६।
इन कुल अुपजो रतन अुजागर७।
दरस परस पारस सम पज़यति।मूढि लोह बुधि हेम८ बनयति ॥१३॥
जिन को अदब राखि गुर आपू।

१नाल रिहा।
२गान दा घर।
३पहिले।
*पा:-अुन पीछे जु टिके।
४संतान (बाबे बुज़ढे जी दी)।
५संप्रदा, पंथ।
६समुंदर (समान)।
७प्रसिज़ध।
८मूरख ळ बुधिवान जिवेण लोहे ळ सोना।

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