Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ६२
८. ।जैत पिराणा बुज़ध॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>९
दोहरा: कहि मर्हाज के बंदि करि, सुनहु प्रभू सुखदाइ!
जैत पिराणे जनम की, भई कथा जिस भाइ ॥१॥
चौपई: जिस निस महि ग्रभ धारनि कीना।
तरुनी इस की मात नवीना।
पति सोण भई संजोगनि राती।
करे बिलास जाग बहु भांती ॥२॥
जाम जामनी जबि रहि गई।
परी मंच निद्रा बसि भई।
अूपर कोठे सुपत परी है।
सगरी रात बितीत करी है ॥३॥
तट तलाअु के घर महि रहैण१।
नीर संग सभि पूरन अहै।
सूरज अुदै होनि को काला।
आइ केहरी एक काराल ॥४॥
इक दिशि ग्राम दुतिय दिशि सोइ२।
आयो शेर त्रिखातुर होइ।
जल को पान करो मन भावा।
पुनगरजो बड शबद सुनावा ॥५॥
जैत मात सुपती तबि जागी।
औचक अुतहि देखिबे लागी।
रवि प्रतिबिंब३ परो जल मांही।
दूसर शेर खरो बड तांही ॥६॥
नेत्र अुघारि प्रथम दो हेरे।
दोनहु के मुख लगी सवेरे।
धीरज धरे देखती रही।
इत अुत द्रिसटि सु टारी नहीण ॥७॥
तिस कारन ते गरब मझारा।
१(इक) तलाअु दे कंढे घर सी (जिस) विच (अुह) रहिदे सन।
२भाव शेर।
३सूरज दा अकस।