Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि७) ६२

फिरो नगर सारे कहि पायो१।
पुन गुरदास सभा चलि आयो।
अूचासन पर बैठि अुचारे।
सतिगुर शबद करति निरधारे ॥८॥
भोग परो न्रिप भनो प्रसंग।
गुर की बात कहौण तुम संग।
लिए हुकमनामा नर आयो।
पठो प्राति इम गुर फुरमायो ॥९॥
-चोर हमारे इक तुम पास।
आइ बसो आखय गुरदास।
तिस की मुशकाण बंधि पठावहु।
कारज करहु खुशी गुर पावहु- ॥१०॥
हम ने सगरो पुरि खुजवायो।
किसी सथान नहीण सो पायो।
सुनि गुरदास सु चिज़त बिचारी।
महिपालक के संग अुचारी ॥११॥
इह तो बात लिखी सभि मेरी।
सभि अवगुन निज लीने हेरी।
मैण गुर ते तसकरता करि कै।
आयो भागि बिमुखता धरि कै ॥१२॥
बडो अहै मेरो अपराधू।
जिस को नहीण सकहि करि साधू२।
तअू दाल निज बिरदसंभारा।
बशन हित कर निकटि हकारा ॥१३॥
न्रिप सुनि बिसमो कहां कहति हो?
इतो दोश किम अपनि लहति हो।
लिखी कि -मुशकैण बंधि पठावो।
पुरि महि बसहि तहां खुजवावो- ॥१४॥
कहां करो तुम गुर अपराधू३?


१सारे नगर विच (ढंडोरा) कहिदा फिरिआ (ते लोकाण ने सुण) पाइआ।
२जिस अपराध ळ कोई साधू (पुरश) नहीण कर सकदा।
३आप ने गुरू जी दा की अपराध कीता है? भाव कोई नहीण कीता किअुणकि.......।

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