Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 52 of 412 from Volume 9

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ६५

७. ।राजे हाथी मंगण आए॥६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>८
दोहरा: श्री सतिगुर हरिराइ जी, भुगति मुकति देण दान।
नित अनेक ही होति हैण, सिज़ख सहित कज़लान ॥१॥
चौपई: देश बिदेशनि ब्रिंद अकोर।
अरपति कहि बिनती कर जोरि।
श्री सतिगुर जी कारज मोह।
सिज़ध भयो हति बिघन संदोहु१ ॥२॥
रावर की करुना बल पाइ।
ततछिन होए मोहि सहाइ।
कोइक कहति पुज़त्र मुझ दीनसि।
प्रथम अकोर इही कहि लीनसि२ ॥३॥
को भाखति मम दारिद खोवा।
इह दसवंध आप को होवा।
केचित कहति पुरहु मम आस।
यां ते मैण आनो धन पास ॥४॥
इज़तादिक कहि बिनै हग़ारनि।
आनि चढावति हैण अुपहारनि।
घटि घटि की लखि अंतरजामी।
पुरहि कामना सिज़खनि, सामी ॥५॥
केतिक नर परलोक सुधारनि।
अुपहारनि अरपाइ हग़ारनि।
रिदे शुज़ध हित, दरशन देखैण।
दुखद बिकारनि हरहि अशेखै ॥६॥
दूर देश ते इक गज३ आइव।
काणहू न्रिप ने भेट चढाइव।
सुंदर महां बिसद जिस रंग।गुन समुदाइनि सहित मतंग३ ॥७॥
सतिगुर निकटि रहै बलवंता।


१सारे ।संस: सदोह॥
२(पुज़त्र लई) इह भेटा पहिले मैण कहि लई सी (कि चड़्हासां)।
३हाथी।

Displaying Page 52 of 412 from Volume 9