Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९)६८
कटक१ जराअु जोति अुदोती।
नवरतने२ सहिति इस भांती।
नव ग्रैह बैठे करि जनु पांती ॥२२॥
मुकता माल अमोल बिसाला।
सुरसरि३ जल धारा जनु चाला।
पाग पेच बाणधे बिच खरी।
अूपरि जिगा जराअुनि जरी ॥२३॥
४सबग़े सभि जे हीरन संग।
ससि डकरे जनु अुज़जल रंग१२।
चमर चारु अूपर को फिरिही।
बिसद मरालनि के समसर ही ॥२४॥
सिपर खड़ग गुर धारनि करो।
निकटि सरासन इखधी धरो।
इत राजे दोनहु मिलि करि कै५।
आवति भे मसलत को धरि कै ॥२५॥
-जे करि जाचो देहि न हाथी।
सुभट सैन बड दोनो साथी।
बल करि छीन लेहि ले चलि हैण।
कहां गुरू का हमरे तुल है- ॥२६॥
इह बुधि करि भूपति अज़गानी।
आए निकटि राज मद मानी।
अंतरजामी श्रीहरिराइ।
जानी सभि जो मति ठहिराइ ॥२७॥
-नाश करैण इन को हंकार।
बेमुख मति के अंध गुबार-।
इम सतिगुर ने मति ठहिराई।
तबि न्रिप आए भट समुदाई ॥२८॥
पद अरबिंद बंदना करि कै।
१कड़े।
२नौ रतन जड़त बहज़टे।
३गंगा।
४(जिस विच) चंद टुकड़ीआण वाणू अुज़जल हीरिआण नाल सारे पंने जड़े हन।
५हंकार करके।