Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ७०

८. ।आसाम पती दी जंग हित तिआरी॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>९
दोहरा: बिशन सिंघ ते सुनि गुरू, श्री मुख ते फुरमाइ।
मत चिंता चित कीजीए, हुइ रघबीर१ सहाइ ॥१॥
चौपई: नहीण मान ते जो बनि आयो२।
महां कठन है तोहि बतायो३।
सो कारज तूं करहि बनाइ।
बिजै कामरू की हुइ जाइ ॥२॥
श्री नानक को महिद प्रतापू।
तिस ते४ जसु लैहैण बहु आपू।
सुख के सहित सदन महि मिलि हैण।
रहि केतिक दिन महि पुन चलि हैण ॥३॥
अबि के इसत्री टामन हारी५।
जबि आवहि लशकर दिशि सारी।
ततछिन सुधिहम निकटि पुचावहु।
बेग तुरंग सअूर चढावहु ॥४॥
हम देखहि पुन शकति न रहै।
छूछी होइ तिसी थल बहैण।
रिदै संदेह न कीजहि कदा।
धरहु अनद बिलदै सदा ॥५॥
सुनि सतिगुर के बाक सुहाए।
बहो प्रवाह तरी जनु पाए६।
हरख भरो अुर भूप अुदारे।
मनहु कलपतरु लहो सुखारे ॥६॥
-जग महि सुजसु मोहि है ऐसे।
भूपति मान न पायहु जैसे७-।


१परमेसर।
२जो मान सिंघ तोण (कंम) सिरे नहीण चड़्ह सकिआ।
३जो तूं दसदा हैण कि कठन है।
४तिन्हां गुराण दी क्रिपा नाल।
५टूंिआण वालीआण।
६जिवेण रुड़्हदे ळ बेड़ी मिल जावे।
७जिवेण मान सिंघ ने बी नहीण पाइआ सी।

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