Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ७३
नीके थाल बिसाल पुरायो१।
रामकुइर भाई कहु खायो।
सहिज सुभाइक मुख ते प्राही२।
-होवहु ग्राम बिखै नित खाही- ॥२३॥
तिन को बाक हेतु म्रितु केरि३।
करि अुपचार लेहु बर४ फेर।
सुनि सभि लोकन जानी जबिहूं।
भोजन भलो बनायहु तबिहूं ॥२४॥
भाअु अधिक ते लै करि गए।
जिस असथान बिराजति भए।
बिनै ठानि अचवाइ अहारा।
नाना रस मैण साद अुदारा ॥२५॥
हाथ जोरि ठांढे ढिग रहे।
अचि५भोजन भाई बच कहे।
किस कारन ते रुचिर अहारा।
करि अचवाइव६? साद अुदारा ॥२६॥
राहक सुनति गिरा मुख प्राही।
शादी हुती ग्राम के मांही।
यां ते रुचिर अहार अचावा।
तुम ते चाहति सुख अुपजावा ॥२७॥
बिहस७ कहो अुज़तम बर तिनै।
भोजन अचो साद के सनै।
यां ते ग्राम बिखै नित शादी।
हुइ आगै नित* करहु अबादी ॥२८॥
सुनि कै सभिनि नमो किय औन८।
१भरिआ।
२कहिआ सी।
३अुन्हां दा वाक कारन है (इन्हां) मौतां दा।
४वर।
५छकके।
६खुलाइआ।
७हज़स करिके।
*पा:-अरु।
८नमसकार कीती प्रिथवी ते।