Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ७७

४. ।भाई रामकुइर जी प्रसंग॥

दोहरा: इक रस ब्रिती अखंड रहि, ब्रहम गान के मांहि।
आइ कदाचित जगत दिश, रहति दास बहु पाहि ॥१॥
चौपई: एक समै तुरकन की सैना।
आइ परी लूटन कहु ऐना१।
बसत्र बिभूखन बासन२ भारे।
तुरणग, धेनु३, महिखी४ गनसारे ॥२॥
देग, कराहे*, बड बरटोहे५।
अंन६ बहुत सभि लीनसि खोहे।
दास अुपाइ करति बहु रहे।
कोण जबरी तुम ठानति अहे ॥३॥
कहि बहु रहे न मानी काहू।
छीन लीनि सभि वथु+ घर मांहू।
बैठेरामकुइर जहिण भाई।
जाइ निकटि सुधि देति सुनाई ॥४॥
सुनि करि मन महिण कछू न आनै।
नहिण दासन सोण बाक बखानै।
कई हग़ारन को धन गयो।
घर महिण नहीण पदारथ रहो ॥५॥
ले करि सकल तुरक की सैना।
जाइ पहूणची अपने ऐना।
लवपुरि को सूबा इक हुतो।
सो जानति सभि बिधि इन मतो७ ॥६॥
महिमा महां पछानहि सोइ।


१घर।
२बरतन।
३घोड़े, गअूआण।
४मज़झीआण।
*पा:-करन के।
५वलटोहे।
६अनाज।
+पा:-वसतु।
७इन्हां दे सुभाअू ळ।

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