Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ७८

सुख दुख मैण इक रस निति होइ।
हरख शोक नहिण जिन के लेश।
इन कअु लखहि महां दरवेश ॥७॥
इह सुधि पहुणची तिस के पासि।
-लिये लूटि रमदास अवास१-।
ततछिन असु अरूड़्ह करि आवा२।
लवपुरि ते तूरन ही धावा ॥८॥
कुछक सैन आई जिह साथ।
बहुत बिसूरति सुनि करि गाथ३।
रामदास के पहुणचो ग्राम।
नगन पैर हुइ प्रविशो धाम ॥९॥
बैठेरामकुइर ढिग गयो।
हाथ जोड़ि नम्री बहु भयो।
चरन सपरशन करि कर संग४।
बंदन कीनि त्रसति५ मन भंग६ ॥१०॥
-मुख ते स्राप देहिण कछु नांही-।
खरो रहो डर धरि अुर मांही।
सहजि सुभाइ रहे सो बैसे।
तिस को बाक न भाखो कैसे ॥११॥
जबहि खान जानी मन मांहि।
-बिनां बुलाए बोलहिण नांहि-।
बहुत दीनता७ साथ बखानी।
मोहि बिबरी ते क्रित ठानी८ ॥१२॥
भई अज़वगा अधिक तुमारी।
तुरक अजान न कीनि चिनारी९।

१रामदास किआण दे घर। (अ) रमदास ग्राम दे घर।
२घोड़े ते सवार होके आइआ।
३वारता।
४करके हज़थां नाल।
५डरदिआण।
६ढज़ठे मन।
७निम्रता।
८कंम कीता है (तुरकाण ने)।
९पछां।

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