Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ७६
९. ।देवी दा आसाम पती ळ गुरू जी दी शरन हित प्रेरना॥
८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>१०
दोहरा: इत धोबन जबि गहि लई,
अपर नहीण को आइ।
बिशन सिंघ बहु हरख अुर,
गुरु ढिग पहुचो धाइ ॥१॥
चौपई: करी बंदना बैठो आनि।
बिनती के जुति करति बखान।
रावर के प्रताप ते जाना।
फते होहि मम काज महाना ॥२॥
तअू सुनहु प्रभु जी! मम अरग़ी।
सभि लशकर बरतहि तुम मरग़ी।
देखि सिदक सभि के अुर होवा।
महां त्रास मंत्रनि को खोवा ॥३॥
बहुत काल बीतो हम आए।
खरचे कोश दरब समुदाए।
बिसरे सदन, रहे सभि ऐसे१।
रिपु परजोर परो नहि कैसे ॥४॥
नहीण बाहनी पार अुतारी।
नहि संग्राम मचो भै कारी।
कबि लगि इह ठां बैठे रहैण।
अुमराव जि अकुलावति अहैण ॥५॥
जोण जोण करुना तुमरी जोवैण।
इस मुहिंम ते छुटिबो होवै।
दीन बंधु जी! करहु सहाई।
बड कलेश ते लेहु बचाई ॥६॥
लोक हग़ारहु तुम दिशि हेरति।
कहिबे हेतु मोहि को प्रेरति।
सगरो लशकर२ शरन तुमारी।
महांराज! कीजै रखवारी ॥७॥
१सारिआण ळ घर भी भुज़ले ते ऐवेण (भाव जिज़त तोण बिना ही)। रहे।
२फौज।