Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ७६

७. ।गड़्ह दी जै दा वाक होणा॥
६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ८
दोहरा: सुनि अकबर शरधा धरी,
कहिन लगो सभि मांहि।
मज़के ते हाजी अए,
अपर मुजावर आहि१* ॥१॥
चौपई: तिनहुण मोहि ढिग कही सुनाइ।-श्री नानक पहुंचे तिसु थाइ।
तहिण मकान की दिश करि चरन।
सुपते निसा परे ढिग धरनि२ ॥२॥
जीवन गयो मुजावर हेरि।
कहे क्रर बच गहि करि पैर।
करे घसीटन तहिण ते जबै।
दर मकान३ तिस दिश भा तबै- ॥३॥
मुसलमान भी मानहिण तिन को।
इक सम जस बापो जगु जिन को।
तिन ते मैण अबि होइ सनाथ४।
कारज पुरवोण धरि पग माथ ॥४॥
इम कहि तार कीन बुधिवान।
पढो पारसी इलम महांन।
निति सतिसंगी, माधुर कहै।
बिमल रिदा जो सभि बिधि लहै ॥५॥
साथ अुपाइन अुज़तम दीनसि।
ग़री वसत्र पशमंबर लीनसि।
इज़तादिक ले दरभ घनेरा।
चलो गुरू दिश भाव बडेरा ॥६॥
पुन अकबर ने सिज़ख सोण कहो।
गुरू ब्रितांत सरब तैण लहो।


१पुजारी हैसन।
*पा:-तांहि।
२रात पई ते धरती ते सुज़ते।
३काअबे दा बूहा।
४निहाल।

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