Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ७९
मिलि मूरख इकठे हुइ आए।
जिनहुण अखाज खाज लखि पाए ॥१३॥
लूटे ग्राम रु धाम१ तुमारे।
सभि सजाइ के अुचित बिचारे।
आप क्रिपा करि कै फुरमावअु।
गई वसतु जो सगल बतावअु ॥१४॥
करि करिकैद सभिनि को लेवौण।
जो कुछ गई, कहहु सो देवौण।
अपनी शरनि परो मुझ जानि।
छिमा करहु अपराध महान ॥१५॥
सुने खान के बाक सु कानि।
दीन मना२ जोण करति बखान।
अूचो मुख करि नैन अुघारे।
पिखे तुरक गन खरे अगारे ॥१६॥
ब्रिंद तुरंग मतंगनि बाहर।
अुठति शबद सुनियति गन ग़ाहर।
खान दिशा अवलोकन कीन।
बोलो रामकुइर परबीन ॥१७॥
हमरो कछू न कित ते गयो।
तुम कैसे बूझति का थयो।
गान अरूढ ब्रिज़ति को जानि।
पुनि बोलो लवपुरि पति खान३ ॥१८॥
तुरक सैन जबि चढि करि आई।
वसतु तुमार लुटी समुदाई।
सो सगरी मुझ देहु बताइ।
तिन ते लै देवोण पहुणचाइ ॥१९॥
रावरि महिमा ते अनजानि।
करी अवज़गा मूढ महान।
भनति खान के इस बिधि बैन।
१पिंड ते घर (ग्राम-अरु-धाम)।
२निम्रता वाले मन नाल।
३सूबा।