Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ७७१०. ।फतेशाह दे लागी आए। तंबोल दी तिआरी॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>११
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू,
दुशट मसंदन मारि।
निज सिज़खन कौ सुख दियो,
बिगरति पंथ सुधारि ॥१॥
चौपई: बसे पांवटे नगर मझारा।
जहि श्री जमुना सुंदर धारा।
शिला बिसाल तीर थिर* जहां१।
करि मज़जन कौ बैठे तहां ॥२॥
श्री मुख ते कविता शुभ रचैण।
छंद सवैये शुभ पद खचैण।
जाम दिवस लौ तहां सुहावैण।
को कारज कित२ निकट न आवै ॥३॥
लिखिबे हित इक थिरे लिखारी।
होइ इकाणकी करहि बिचारी।
पुन अुठि महाराज गुर पूरे।
अचहि असन नाना बिधि रूरे ॥४॥
वरतहि देग अतोट भंडारा।
खाइ अहारनि सिज़ख हग़ारा।
आवहि जाइ निताप्रति नए।
दरसहि चरन कमल सुक मए ॥५॥
पुन कलीधर केतिक समैण।
थिरे प्रयंक आइ नर निमैण।
नद चंद संगो ते आदि।
बंदति बैठहि धरि अहिलादि ॥६॥
राज साज की बातअनेक।
करहि बूझि करि जलधि विवेक।
अपर प्रसंग कहैण मन भाए।
*पा:-सुतीरथ।
१जिज़थे किनारे ते वज़डी शिला टिकी है।
२किसे कारज लई कोई।