Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) ७७
आयुध धरे रहैण सरबंग।
बंदेसुनोण सिर्हंद पति आयो।
लशकर लै तहि ते निकसायो ॥२८॥
हित मारन करि चौणप बिसाला।
चढि इत ते पुरि लूटि अंबाला।
दीरघ अलप ग्राम कै नगरी।
छीने बसतु अुजारहि सगरी ॥२९॥
समुख तुरक के कूच करंते।
चाहति लरिबो शसत्र धरंते।
छत बानूड़ नगर जिस थाना। {विशेश टूक}
तहि मुकाबला दोनहु ठाना ॥३०॥
इत गुर दल अुत लशकर आवा।
लाखहु सुभटन लरिबे चावा।
बंदा अरु वग़ीर खां दोअू।
जै अभिलाखी है करि सोअू ॥३१॥
निस महि बोणत लरन को करि कै।
मिसल मिसल महि अुतसव धरि कै।
बहु बरूद गोरी बरताई।
आपो अपनी करि तकराई ॥३२॥
प्राति होति रण चाहति करो।
दोअू दिशिनि क्रोध को धरो।
हुकम कीनि धौणसे धुंकारे।
गोमुख पटह ढोल ढमकारे ॥३३॥
तोप पुंज की शलख चलाई।
सैन ओरड़ी छित कंपाई।
पर्हे दूर लगि बंधन करे१।
तार तुफंग बान धनु धरे ॥३४॥
परो नेर होयसि भटभेर।
छूटे गोरी गोर बडेर।
तड़भड़ शलख अवाग़ बिसाले।
फूटे बीरनि अंग अुताले ॥३५॥
१दूर तज़क कताराण बंन्हणीआण कीतीआण।