Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ८१
९. ।अंम्रितसर विराजमान॥
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दोहरा: श्री गुरु हरि गोबिंद जी,करि कै खान रु पान।
सभि पुरि को आनद दै,
बानी म्रिदुल बखानि ॥१॥
चौपई: जथा जोग बोले सभि साथ।
कुशल प्रशन करि कै गुर नाथ।
महिल आपने जाइ सुहाए।
तबि दमोदरी मोद बढाए ॥२॥
बंदन करी बंदि कर तबै।
देखो कंत महां दुति फबै।
दासी गन सेवा सभि ठानी।
सुपते सतिगुरु सेज महानी ॥३॥
जाम निसा ते जाग्रति होइ।
सौचाचार करी सभि जोइ।
करि शनान को लाइ धिआन।
थिर करि ब्रिती लियो रस गान ॥४॥
संगति सकल सु मज़जति है कै।
सुनहि करैण किरतन सुख पै कै।
जहि कहि पुरि महि अरु हरिमंदरि।
भजन होति इक रस प्रभु सुंदर ॥५॥
सूरज अुदै भोग तबि परो।
सभिनि गुरू को दरशन करो।
जहांगीर के नर पुन आए।
करि पंचांम्रित बहु करिवाए ॥६॥
इतने बिखै आप चलि आयो।
कहि सतिगुरु को संग मिलायो।
प्रथम अकाल तखत को आए।
दरशन देखति सीस निवाए ॥७॥
तहि निज कर ते धन अरपायो।
करि अरदास कराहु ब्रतायो।