Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ८५

निकसे वहिर अरूढन भए।
पहुणचन हित निज ग्राम सिधए ॥५१॥
सने सने मारग चलि परे।
सकल वसतु ले सेवक तुरे।
कहो खान ने रहीअहि संग।
बड़वा१ तेज कुचलनि२ कुढंग ॥५२॥
तिन पीछै अपने जनु केई।
पठिबो करे३ कहो संग तेई।
दूर दूर तुम देखति जाओ।
गिरहिण कि नहीण बर सभि लाओ ॥५३॥
जब लगाम बिन चढि कर चाले।
अचरज मानो खान बिसाले।
नमसकार करि घर को गयो।
शरधा दिढि ठानति सुख लयो ॥५४॥
लवपुरि ते निकसे मग परे।
चलहि तुरंगनि४ हुइ अनुसरे५।
जथा चलावनि मन महिण ठानै।
सुखदा गमनहि६ तथा महाने ॥५५॥
पठे खान जन देखन जेई।
चित पहिचानति भे बिधि तेई।
सभिनि देखिते तबहि भजाइ।
पौन गौन को करि पिछवाई७ ॥५६॥
जाति गरद अवलोकन करिई।
नहिण बड़वा को अंग निहरिई।
अधिक शीघ्रता धरि इम दौरी।
हेरिहेरि नर मति भई बौरी ॥५७॥


१घोड़ी।
२खोटी चाल वाली।
३भेजे।
४घोड़ी।
५अनुसार हो के।
६सुख नाल टुरदी है।
७वायू दे वेग ळ पिज़छे छज़ड गई।

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