Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ८३
१०. ।आसाम पती गुरू जी दी शरन॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>११
दोहरा: अुतरि नरेशर तरी ते,
आगे करे अकोर।
नगन चरन ते गमन करि,
सभि कुटंब कर जोरि ॥१॥
चौपई: शरधा करे भाअु अुर धारा।
श्री सतिगुर के निकटि पधारा।
शरनि शरनि करि परो अगारी।
पद अरबिंद बंदना धारी ॥२॥
देश कामरू को मैण राजा।
तुम ढिग आयो तागि समाजा।
हिंदुनि के अलब तुम अहो।
दासनि ब्रिंद सहाइक रहो ॥३॥
देवी की आइसु के साथ।
आए शरनि तिहारी नाथ!
जोण भावहि तोण कीजहि अबै।
तुम आगा अनुसारी सबै ॥४॥
तअू एक सुनीअहिगुरु सामी।
सभि बिधि समरथ अंतरजामी।
हम हिंदू गुरु के सिज़ख अहैण१।
सगरो देश मानतो रहै ॥५॥
अबि तुरकेशुर के बसि मांही।
गेरहु हमहि, जोगता नांही।
अुचित सहाइक होवनि हमरे।
हिंदू सभि अलब हैण तुमरे ॥६॥
सुनि बिनती गुर भए क्रिपाल।
ले दसतार आप कर नाल२।
न्रिप के सीस धरी जिस काला।
जागे जिस के भाग बिसाला ॥७॥
१गुरू जी दे (भाव आपदे) सिज़ख हां।
२हज़थ नाल।