Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ८२
१०. ।कवीयन संबाद॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>११
दोहरा: +एक बार श्री सतिगुरूबैठे अपने भाइ१।
कथा भई तहि पांडवनि
पंडत भारत आइ२ ॥१॥
तहि पाछे चरचा भई
मरो न आवै कोइ३।
का जानै का होइ तहि
है वा नांही होइ४ ॥२॥
तबि बोले नद लाल जी
करनी कमल++ जमाल५।
सिज़ख सिदक गुरमुखि बडे६
तिन को भलो हवाल७ ॥३॥
सैनापति कविता कहै८
गुर दरशन ते पार।
करे भली वा बुरी नित
सतिगुर लेइ सवार ॥४॥
अुदेराइ कवि इअुण कहै
जैसी काहूं घाल।
तैसा फल द्रम होइगा
जैसा बीज बिसाल ॥५॥
रावल९ बोले जीव को
+इह अगली लगपग सारी इबारत ६३वीण साखी दा अुतारा है।
१सुते सिज़ध, आपणी मौज विच।
२पंडत ने आके महां भारत विचोण पांडवाण दी कथा कीती।
३मरिआ मुड़के कोई नहीण आणवदा (संसार विच)।
४कोई (रूप बणिआण) रहिदा है जाण नहीण।
++पा:-करम।
५करनी (रूपी) कवल सुंदर (जिन्हां दा खिड़िआ है)।
६सिदकी ते वडे गुरमुख सिज़ख (जो हन)।
७(प्रलोक विच) तिन्हां दा हाल भला हुंदा है।
८कविता (करन वालाभाव कवी) सैनापत तदोण कहिं लगा।
पा:-लेति।
९नाम कवी दा है।