Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ८३
८. ।दाई दी रूह ने अपणी पिछली कथा सुणाई॥
७ॴॴपिछला अंसूततकरा रासि ३ अगला अंसू>>९
दोहरा: दुरी गगन महि बचन कहि, डरहु न मो ते कोइ।
सभि प्रसंग सुनि लीजीए, भयो कहौण मैण सोइ ॥१॥
सैया छंद: पूरब जनम मोहि गंधरबी१,
सकल शकति जुति मैण मन मान२।
गावन बिज़दा बिखै निपुन बहु
सुंदर अति सरूप दुतिवान।
सुरग सदा बिचरति सुख पावति
इक दिन सुरनि सभा के थान।
करति गान बहु तान मिलावति
सुनति कान सो हुइ बिरमान३ ॥२॥
तबि सुरगुरु४ आयो किस कारन
हेरति अुठे सभा सुर ब्रिंद।
सादर नमो कीनि बड जानो
ब्रहम विज़दा महि पूरन बिलद।
बैठो आनि सभिनि कहु देखति
राग रंग महि भए अनद।
मम दिशि लखि करि जानि मान बड
-इह दुशटाचारणि मति मंद ॥३॥
गावनि अरु सरूप बड मेरो
इहु गुन जानि धरति हंकार।
सुरनि सभाको अुचित न दुशटा
नहि मन जानो मोहि अुदार।
अपर सरब ही मानहि दीरघ
इंद्र आदि जेतिक बलिभार५।
दंड जोग है देअुण स्राप इस
गरब बिनाशहि इसी प्रकार ॥४॥
१सुरग दी गाअुण वाली।
२मेरे मन विच हंकार सी।
३मोहत हो जावे।
४ब्रहसपत।
५भारी बल वाले।