Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ८६
पहुणचे केती दूर, टिकाई१।
पुन नर गन कहु सो द्रिशटाई।
इक दिश चरन किए असवारी।
हेरि हेरि सभि बंदन धारी ॥५८॥
सहिज सुभाइक मारग सारे।
अुलणघि पहुणचि निज ग्राम मझारे।
अुतर परे अपने घर रहे।
देश अनिक मानति जिस अहे ॥५९॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री रामकुइर प्रसंग
बरनन नाम चतुरथो अंसू ॥४॥
१(घोड़ी) खड़ी कीती।