Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ८४८. ।वापस आए। वलीखान दा निरादर॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>९
दोहरा: तीन दिवस जसु के रचित१, रहे नगर करतार।
प्रेमचंद चित प्रेम बहु, सेवे बिबिध प्रकार ॥१॥
चौपई: करन बिसरजन हेत हकारे।
बादित बजति आइ तिस दारे।
यथा शकति दाइज धरि दीनि।
हाथ जोरि पुन कहो प्रबीन ॥२॥
मो ते सरो नहीण कुछ काजा।
राखी लाज रीब निवाजा।
इक दासी मैण दुहिता दई।
लखि अनाथ मैण करुना२ भई ॥३॥
श्री हरि गोविंद सुनति बखाना।
दुहिता दीनि कहां रहि आना३।
जथाशकति सेवा सभि कीनि।
गुर सिज़खनि की खुशी सु लीनि ॥४॥
सुनि सतिगुर के बाक सुहाए।
प्रेम चंद नर गन हरखाए।
बहुर बसत्र आने समुदाए।
गुर सिज़खन गन को अरपाए ॥५॥
भाना साहिब अर गुरदास।
इज़तादिक जे सतिगुर पास।
सभि ते खुशी लीनि हरिखायो।
प्रेमचंद जसु चंद चढायो ॥६॥
दुहिता को बिठाइकरि डोरे।
करे बिसरजन कर जुग जोरे।
४खेम कौर निज तनुजा साथ।
मिलति अंक गहि जननी हाथ४ ॥७॥


१जस दी रचना रचदे भाव विआह कारज जस वाले ढंग नाल करदे रहे (अ) (विआह) रचदे ते
जस खज़टदे।
२मेरे ते मिहर।
३धी दे दिज़ती (बाकी) होर की रहि गिआ।
४(काकी दी) मां (सोभा देई) अपनी धी खेम कौर दा हज़थ फड़के जज़फी पाके मिलदी है

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