Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ८८
करि हौण सतिगुर सुजस अुचारनि ॥६॥
जिम दधि१ बिखै घ्रिज़त मिल रहै।
करहि मथन२ नीके सुभलहै।
तिम जग महिण कर बाद बिबादू३।
गुर जसु संचौण४ दे अहिलादू५ ॥७॥
जथा अुदधि मथि६ रतन निकासे।
वहिर भए जग महिद प्रकाशे।
तिमि सतिगुर को सुजसु निकाशौण।
सभि ते सुनि इक थान प्रकाशौण ॥८॥
पूरब मैण श्री नानक कथा।
छंदन बिखै रची मति जथा*।
रहो चाहितो+ गुरनि७ ब्रितांत।
नहिण पायो तिस ते पशचात ॥९॥
परालबध करि किति किति रहे।
चित महिण गुर जसु रचिबो चहे।
करम काल८ ते कैणथल आए।
थित हुइ जपुजी अरथ बनाए ॥१०॥
पुनि संजोग होइ अस गयो।
राम चरित को मन हुलसयो।
बालमीक क्रित कथा सुनी जबि।
छंदनि बिखे रची तब हम सबि ॥११॥
राम कथा पावन बिसतारी९।
१दहीण।
२रिड़कं नाल।
३भाव, वाद = गुरजस दा विसतार सहित वरणन, ते विवाद = विरोधी पुरखां दे कथन दा युकती
सहित खंडन।
४कज़ठा कराणगा।
५प्रसंनता दे देण वाला (गुरू जस)।
६समुंदर रिड़क के।
*श्री गुर नानक प्रकाश तोण मुराद है।
+पा:-रचो चाह नौ।
७भावबाकी नवाण गुराण दा।
८भाव करम ते समेण दी गती नाल।
९फैलाई।