Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ८६
११. ।पैणदे खान दी बेमुखता॥
१०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>१२
दोहरा: कूर आन२ को जानि मन,
श्री गुर कीनि बखान।
बिधीचंद सभि आनि करि,
दिहु दिखाइ ले मान ॥१॥
सैया छंद: सुनि आइसु को ततछिन अुठि करि
बाग़, पुशाक, खड़ग ले आइ।
सभा बीच सभिहूंनि अगारी
धरि करि तिह थल दीए दिखाइ।
क्रोध करति ही सतिगुर बोले
कहु पापी! इहु कहि ते लाइ?बार बार समुझाइ रहे तुझ,
रे मतिमंद! न मिज़था गाइ१ ॥२॥
कहो न मानो मूरख! तैण कुछ,
कूर कहति भा बड हठ धारि।
लाज बिलोचन बोल न साकहि,
नीची ग्रीव सचिंत बिचार।
पुन गुर कहो कहैण कोण नांही,
धिक तो कहु, नहि साच अुचारि।
निमक हरामी सूरत बनि कै
बैठि रहो का कीनि गवार ॥३॥
बैन बान ते बिधो अधिक ही,
झूठा भयो, सहो नहि जाइ।
सभा बिखै रिस धरि कै बोलो
नाहक तुहमत मोहि लगाइ।
बाग़ सदन महि राखन कीनसि
कहो फेर किन लीनि छिपाइ।
अबि निकास ले आइ सभा महि,
बिधीचंद इहु कपट बनाइ ॥४॥
झूठा भयो बिदत ही मूरख
१झूठ ना बोल।