Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ९१

तअू जुज़ध महिण बहु अहिलादे१ ॥२४॥
लेश मात्र जिनि मोह न होयो।
महां बीर शज़त्रन घर खोयो।
जोण चित चहति करति ततकाला।
तअू चले जिम नर गन चाला ॥२५॥
जिन+महिण२ अति अुतसाहि थिरो है।
आगे अस किनहूं न करो है।
अधिपति३ अधिक४ नुरंगा भयो।
सभि देशनि कहु राजा थयो ॥२६॥
दै बिंसत लछ++ सैना५ संग।
दस हग़ार तोपैण गढव भंग६।
अरु पंचास हग़ार जमूरे७।
अरो न को कीनसि सभि चूरे ॥२७॥
अपर८ सैन जो राजन केरी।
गनै कौन संग चलहि घनेरी।
जिस को तेज सहै नहिण कोअू।
सकल मिलैण बंदैण कर दोअू ॥२८॥
तिह सोण९ अरि कै करन लड़ाई।
सिंघ अलप१० ले संग सहाई।


१प्रसंन रहे।
+पा:-रन।
२भाव गुराण विच।
३पातशाह।
४बड़ा।
++इह अुस दी सैनां दी गिंती सिंघां ने अुस वेले दी लोक प्रसिध गिंती कही है, छावंीआण विच
रहिं वाली बी, घोड़ चड़्हे, हाथी सवार, तोपखाने वाले बीते जो अज़गे पिछे घरीण वसदे सन, पर
जंग वेले सज़दे ते आ शामल हुंदे सन ओह सारे। अुस समेण हथिआर हर कोई रज़ख सकदा सी, जिस
करके हथिआर वरतंा बे-गिंत लोक जाणदे सन, ते पातशाही होकरे ते अनेकाण आ आ कठे हो
जाणदे सन।
५बाई लख फौज।
६किल्हे तोड़न वालीआण।
७छोटी तोप।
८होर।९भाव ऐसे बलवान पातशाह नाल।
१०थोड़े जिंने।

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