Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ९०१२. ।धीरमज़ल वज़लोण होर विरोध॥
११ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>१३
दोहरा: दुशट मसंद हकार करि, दुर ब्रिति चितवो पाप१।
गुर ढिग लाइ जसूस को, सथित तार है आप ॥१॥
चौपई: मज़खंशाहि समीप गुरू के।
रिदै कामना सकल पुरू के।
कहति भयो मुझ कियो निहाल।
दै लोकनि दिय अनद बिसाल ॥२॥
चरन सपरशति कोमल हाथ।
सहज बात करि प्रीती साथ।
संगति दियो दरस थित आप।
दुशटनि दाप खापि परताप२ ॥३॥
नहि अबि काल छपनि कहु रावरि।
छत्र तुमारे सीस फिरावरि३।
सभि सिज़खनि के वाली होवहु।
बनहु सहाइ दास दुख खोवहु ॥४॥
बिना आसरे संगति सारी।
इत अुत खोजति गुर कहु हारी।
धीर दिलासा सिज़खनि देहु।
दरस करावहु भेटैण लेहु ॥५॥
अुपदेशहु लखि करि अधिकारी।
इम महिमा हुइ जग बिसतारी।
इज़तादिक करि करि अरदास।
बैठारे दरसति गन दास ॥६॥
इस को प्रेम हेरि गुरपूरा।
करति भए जिम कहि बच रूरा।
डेढ जाम जबि दिवस चढो है।
गुर अरु संगति अनद बढो है ॥७॥
मज़खं अुठो बंदना कीनसि।
१खोटी ब्रिती वाले दुशट मसंद ने पाप चितव के सज़दिआ (जसूस ळ)।
२दुशटां दे प्रताप ते हंकार ळ नाश करो।
३फिर रिहा है।