Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ९६
रहै ब्रिती नित जोग अरूड़ा।
इक रस मैण आशै जिस गूड़्हा।
जिन के छुयो बिकार न कोइ।
जती पुरश भीशम सम१ सोइ ॥१३॥
लखमीदासु अनुज२ तिन भयो।
मग ग्रिहसत जिन धारनि कयो।
गान बिखै जुग३ भ्रात समान।
श्री नानक के पुज़त्र सुजान ॥१४॥
धरम चंद पोत्रा पुन भयो।
जिस ते बंश बेदीयन थयो।
इक दिन करि अखेर कहु४ आए५।
शशि६ हति७ असु८ दुहदिशि लरकाए९ ॥१५॥
सिरी चंद ने अनुज८ निहारा।
क्रिपा जुगत हुइ बाक अुचारा।
दिन प्रति अनिक जीव कहु घावैण१०।
इह लेखा देनो बनि आवै ॥१६॥
कहो भ्रात को नहीण सहारा।
गयो सदन मैण कीनसि तारा।
अपन भारजा ले सुतसंग।
धारि शीघ्रता चढो तुरंग ॥१७॥
आइ भ्रात सोण भनो जनाए।
लेखा देनि अबहि हम जाए।
सुनति सिरी चंद रिदै बिचारा।
धरमचंद को पकरि अुतारा ॥१८॥
१भीखम वाणू।
२छोटा भिरा।
३दोवेण।
४शिकार करके।
५भाव लखमी चंद जी।
६सिहे, रगोश।
७मार के।
८लमकाए।
९लमकाए।
१०मारदे हो।