Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ९४११. ।वाह प्रसंग॥
१०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>१२
दोहरा: इति सतिगुर सभि रीति करि, जुग मातनि हरखाइ।
करी बाह तारी सकल, चहीअति सो अनवाइ ॥१॥
चौपई: तबहि सुभिखीए शगन पठायो।
दिज नाअू तबि लै करि आयो।
भले सदन करिवायहु डेरा।
खान पान पीठ साद बडेरा ॥२॥
श्री गुजरी सुनि मंगल ठाना।
करो हकारनि गणक१ सुजाना।
स्रेशट समां बिचार बतावहु*।
मम सुत मसतक तिलक कढावहु ॥३॥
प्राति पंचमी बिज़प्र अुचारी।
कीजहि माता सगरी तारी।
तुमरो नदन मंगल मूल।
सकल गीरबान अनकूल२ ॥४॥
नाम गुरू को बिघन बिनाशी।
पूरन होति मनोरथ रासी३।
सुनि गुजरी मन हरख न थोरा।
भेजी सुधि सभिहिनि की ओरा ॥५॥
कीरतपुरि ते सकल हकारी।
मिली अनेक नगर की नारी।
बादित अनिक रीति बजवाए।
गुरू पौर के अज़ग्र सुहाए ॥६॥
निस महि मिलहि चारु गन नारी।
इक नाचति हैण दे करि तारी।
श्री गुजरी सभिको सनमानै।
१जोतशी।
*साहा सुधाअुणा आदि गुरू घर विच विहत नहीण देखो रास ४ अंसू ७ अंक २४ ते रास ७ अंसू १
अंक ३२ दीआण हेठलीआण टूकाण। फिर एथे ही देखो कि अगली तुक विच जोतशी गुरू जी ळ मंगल
मूल विघन बिनासी ते सारे देवते अुहनां दे अधीन दज़स रिहा है।
२देवेत (गुरू जी दे) अनुसारी हन।
३सारे।