Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) ९३
गुर तीरथ को अधिक प्रतापू।
लाखहु दुशटन को संतापू ॥२७॥
कहौणकहां लगि रिपु गन मारे।
लरि लरि सनमुख मारि निवारे।
देशनि बिखै अमल१ निज करो।
भई प्रजा हाला गन भरो ॥२८॥
इतने महि दिज़ली ते लशकर।
आए लाखहु शोर महां धरि।
सुनि बंदा सनमुख ही गयो।
सतुज़द्रव सलिता अुलघति भयो ॥२९॥
लुदवं नगर मारि करि लरो।
तुरकनि संग जंग बड करो।
तुपक तोप जंजैल चलावै।
तीर तबर तोमर सु भ्रमावै ॥३०॥
भयो भेड़ ओड़क को भारा।
सो लशकर भी लरि करि मारा।
तिसी देश के पुरि गन ग्रामू।
लूटे कूटि अुजारे धामू ॥३१॥
पुन दाबे महि भयो प्रवेश।
छीनति धन रिपु हते अशेश।
नगर दज़खंी को तबि मारो।
फिरे महांदल सकल अुजारो ॥३२॥
पुन गुरदास पुरे को लूटा।
सनमुख लरो लीन सो कूटा।
इस बिधि सगरो कथा प्रसंग।
राम कुइर कहि श्रोतन संग ॥३३॥
बडे जुज़ध करि दुरजन घाए।
हम२ भी तबि मिलने हित आए।
बहु लोकनि बिरतंत हमारा।
बंदे को सुनाइ करि सारा ॥३४॥१हकूमत।
२(साहिब राम कौर जी कहिदे हन कि) असीण बी तदोण बंदे ळ आके मिले।